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ह꣡स्त꣢च्युतेभि꣣र꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ पुनीतन । म꣢धा꣣वा꣡ धा꣢वता꣣ म꣡धु꣢ ॥१४४५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

हस्तच्युतेभिरद्रिभिः सुतꣳ सोमं पुनीतन । मधावा धावता मधु ॥१४४५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह꣡स्त꣢꣯च्युतेभिः । ह꣡स्त꣢꣯ । च्यु꣣तेभिः । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुत꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । पु꣣नीतन । पुनीत । न । म꣡धौ꣢꣯ । आ । धा꣣वत । म꣡धु꣢꣯ ॥१४४५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1445 | (कौथोम) 6 » 3 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर मनुष्यों को प्रेरित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे उपासको ! (हस्तच्युतेभिः) हाथ-रहित (अद्रिभिः) हृदय और मस्तिष्करूप सिल-बट्टों से (सुतम्) अभिषुत किये गये (सोमम्) श्रद्धारस को (पुनीतन) पवित्र करो। (मधौ) अपने मधुर श्रद्धारस में (मधु) परमात्मा से प्राप्त मधुर आनन्द-रस को (आधावत) मिला दो ॥२॥ यहाँ ‘मधा, मधु’ और ‘धावा, धाव’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जब योगी लोगों को ब्रह्मानन्द-रस की अनुभूति हो जाती है,तभी उनकी परब्रह्म में श्रद्धा सफल होती है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि मानवान् प्रेरयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे उपासकाः ! (हस्तच्युतेभिः) हस्तरहितैः (अद्रिभिः) हृदयमस्तिष्करूपैः पेषणसाधनैः (सुतम्) अभिषुतम् (सोमम्) श्रद्धारसम् (पुनीतन) पवित्रयत। (मधौ) मधुरे स्वकीये श्रद्धारसे (मधु) परमात्मनः सकाशात् प्राप्तं मधुरम् आनन्दरसम् (आधावत) आगमयत, मिश्रयतेत्यर्थः। [धावु गतिशुद्ध्योः] ॥२॥ ‘मधा, मधु’, ‘धावा, धाव’ इत्यत्र छेकानुप्रासोऽलङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यदा योगिभिर्ब्रह्मानन्दरसोऽनुभूयते तदैव तेषां परब्रह्मणि श्रद्धा सफला जायते ॥२॥